क्या फिर बड़ा फैसला लेंगी मेनका गांधी?... जीत के बावजूद न मिला था केंद्र में मंत्रालय

मेनका गांधी अपने राजनीतिक जीवन की तीसरी हार से रूबरू हो चुकी हैं। भाजपा में उनका कद पहले ही घट रहा था

क्या फिर बड़ा फैसला लेंगी मेनका गांधी?... जीत के बावजूद न मिला था केंद्र में मंत्रालय

मेनका गांधी अपने राजनीतिक जीवन की तीसरी हार से रूबरू हो चुकी हैं। भाजपा में उनका कद पहले ही घट रहा था। ऊपर से बेटे का राजनीतिक पुनर्वास उनके लिए चुनौती है। ऐसे में क्या वह भाजपा से इतर नई सियासी डगर तलाश सकती हैं या फिर इंतजार करेंगी? 

यह सवाल सुल्तानपुर में खासा चर्चा में है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अच्छा विकल्प न होने के कारण फिलहाल वह भाजपा के रुख में बदलाव का इंतजार कर सकती हैं।

मेनका गांधी ने अपनी राजनीति की शुरुआत तो संजय गांधी के निधन के बाद 1982 में ही कर दी थी। 

उन्होंने संजय विचार मंच बनाकर कई जगह चुनाव भी लड़ाए थे लेकिन, जब 1984 में वह अपना पहला चुनाव अमेठी से हारीं तो उन्हें मजबूत राजनीतिक मंच की जरूरत महसूस हुई। इसलिए वह जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिलीं और अमेठी में ही उनके संगठन का विलय जनता दल में हो गया। 

इस बीच जनता दल का गठन हुआ तो वह चंद्रशेखर के साथ ही जनता दल में चली गईं और जनता दल से 1989 में पीलीभीत से चुनाव लड़कर जीती भीं। 1991 की रामलहर में वह पीलीभीत से चुनाव हार गईं। उसके बाद से उन्होंने 1996, 1998, 1999 में पीलीभीत से निर्दलीय चुनाव लड़ा, जिसमें गैर कांग्रेसी दल और भाजपा का समर्थन मिलता रहा।

2004 में वह भाजपा में शामिल हुईं और पीलीभीत से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव भी जीता। 2009 में जब वरुण गांधी राजनीति में आए तो मेनका ने उन्हें पीलीभीत की कमान सौंपी और खुद आंवला से लड़ीं। दोनों ने ही जीत हासिल की। 2014 में वह पीलीभीत और वरुण सुल्तानपुर से जीते। 

 
2019 में दोनों ने सीटें अदल-बदलकर जीत हासिल की। इस बीच वरुण गांधी के रिश्ते भाजपा शीर्ष नेतृत्व से बिगड़ते गए और अंतत: पार्टी ने 2024 में उनका टिकट काट दिया। यही नहीं, 2014 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मेनका का कद घटाते हुए नेतृत्व ने उन्हें 2019 में दोबारा मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया।

 
संघ परिवार से मधुर हैं रिश्ते
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक राज खन्ना कहते हैं कि वरुण गांधी के मुकाबले मेनका का भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से भी सामंजस्य रहा है। हालांकि चुनाव में उन्होंने भी शीर्ष नेताओं के नाम का बहुत इस्तेमाल नहीं किया। वरुण ने तो बिल्कुल ही परहेज किया लेकिन, मेनका गांधी के संघ से करीबी रिश्ते हैं। 

चुनाव नतीजों से भाजपा के शीर्ष नेताओं की सोच में भी बदलाव की उम्मीद है। उधर, दूसरे खेमे में उनका जाना संभव नहीं दिखता। ऐसे में विकल्पहीनता की स्थिति में मेनका इंतजार कर सकती हैं। किंतु यह तय है कि उनकी प्राथमिकता वरुण गांधी का राजनीतिक पुनर्वास जरूर होगा।