दुनिया भर में मशहूर है इस शहर के दशहरा उत्सव की भव्यता , साढ़े 7 सौ किलो का सिंहासन, लाइटिंग के लिए डेढ़ लाख बल्ब
रोशनी से नहाया मैसूर महल, फूलों से सजे चढ़ावे, सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला और 6 किलोमीटर का सफर, हर साल कुछ ऐसा दिखता है 600 साल पुराना मैसूर का दशहरा। जिसे देखने के लिए भारत ही नहीं विदेशों से भी लोग पहुंचते हैं।
आज 5 अक्टूबर को पूरे देश में दशहरा बहुत धूमधाम से मनाया जा रहा है लेकिन इसमें सबसे खास है मैसूर का दशहरा। रोशनी से नहाया मैसूर महल, फूलों से सजे चढ़ावे, सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला और 6 किलोमीटर का सफर, हर साल कुछ ऐसा दिखता है 600 साल पुराना मैसूर का दशहरा। जिसे देखने के लिए भारत ही नहीं विदेशों से भी लोग पहुंचते हैं। इसे यहां स्थानीय भाषा में दसारा भी कहते हैं। मैसूर का दशहरा अन्य दशहरों से अलग है क्योंकि यहां न राम होते हैं और न ही रावण का पुतला जलाया जाता है। बल्कि देवी चामुंडा के राक्षस महिसासुर का वध करने पर धूमधाम से दशहरा मनाया जाता है।इस साल भी मैसूर के दशहरे का जश्न अपने चरम पर है।
समय बीतने के साथ ही जगह-जगह दशहरे मनाने के तरीकों में कई तरह के बदलाव किए गए। लेकिन आज भी मैसूर के दशहरे जैसी भव्यता कहीं और देखने को नहीं मिलती। इसका शाही अंदाज आज भी कायम है। इस दिन का खास आकर्षण होता है शाही दरबार और मैसूर पैलेस से लेकर बन्नीमंडप मैदान तक निकलने वाली सवारी। दशहरे के पहले दिन शाही तलवार की पूजा होती है। इस दिन की सवारी में हाथी, घोड़े, ऊंट, नर्तक सभी शामिल होते हैं। अगले दिन जंबो सवारी होती है। लगभग पूरे शहर का चक्कर लगाने वाली इस सवारी के लिए हाथियों को खासतौर से ट्रेनिंग दी जाती है। एक हाथी की पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी की बड़ी सी प्रतिमा विराजमान होती है। इस सवारी में सुंदर-सुंदर झांकियां भी शामिल होती है। कहा जाता है कि बन्नीमंडप मैदान में ही वह पेड़ स्थित है जहां पांडवों ने अज्ञातवास प्रस्थान से पहले अपने अस्त्र-शस्त्र छिपाए थे।
चामुंडेश्वरी देवी चामुंडी पहाड़ियों पर विराजमान हैं। दशहरे के मौके पर इस पहाड़ी को डेढ़ लाख से ज्यादा बिजली के बल्बों से सजाया जाता है। वहीं मैसूर महल की सजावट में 90 हजार से अधिक बिजली बल्बों का उपयोग होता है। दशहरे के जुलूस में सजे-धजे हाथियों पर साढ़े सात सौ किलो के सोने के सिंहासन पर विराजमान होकर चामुंडेश्वरी देवी निकलती है। चामुंडेश्वरी देवी की पहली पूजा रॉयल फैमिली करती है. सोने का यह सिंहासन मैसूर के कारीगरों की कारीगरी का अद्भुत नमूना है, जो कि साल में केवल एक बार विजयदशमी पर माता की सवारी के लिए उपयोग किया जाता है।
10 दिनों तक चलने वाला दशहरे का उत्सव चामुंडेश्वरी देवी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक माना जाता है। इस उत्सव की शुरुआत देवी चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा अर्चना से शुरू होती है। सबसे पहले मैसूर की रॉयल फैमिली देवी चामुंडेश्वरी की मूर्ति की पूजा करती है। दरअसल, मैसूर के इस दशहरे का इतिहास सदियों पुराना है। कहा जाता है कि चौदहवी शताब्दी में सबसे पहली बार हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने नवरात्रि का उत्सव मनाया था। इसके बाद वाडियार राजवंश के शासक कृष्णराज वडियार ने इसे दशहरे का नाम दिया और तब से 10 दिन के उत्सव की परंपरा चली आ रही है।
यह पर्व ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ कला, संस्कृति और आनंद का अद्भुत संयोग है। दशहरा के दौरान यहां हर साल करीब 6 लाख से अधिक पर्यटक आते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम खेल-कूद, गोम्बे हब्बा, जम्बो सवारी पर्यटकों को खासतौर पर आकर्षित करती है। कर्नाटक के मैसूर में दशहरा का उत्सव 10 दिन तक चलता है। दशहरे पर मैसूर के राजमहल में खास लाइटिंग होती है। सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला 21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से निकलता है।
काफिला करीब 6 किलोमीटर दूर बन्नी मंडप में खत्म होता है। इसकी अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर 750 किलो शुद्ध सोने का अम्बारी (सिंहासन) होता है, जिसमें माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति रखी होती है। पहले इस अम्बारी पर मैसूर के राजा बैठते थे, लेकिन 26वें संविधान संशोधन के बाद 1971 में राजशाही खत्म हो गई। तब से अम्बारी पर राजा की जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति रखी गई। मैसूर महल के सामने मैदान में दशहरा प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इसमें बहुत सी छोटी-छोटी दुकानें लगाई जाती हैं जिसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं जो यहां आने वाले पर्यटकों के लिए खास आकर्षण होती हैं।
दशहरा उत्सव के इतिहास में सिर्फ एक बार रुकावट आई थी। वर्ष 1970 में जब भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ने छोटी-छोटी रियासतों के शासकों की मान्यता समाप्त कर दी तो उस वर्ष दशहरे का उत्सव भी नहीं मनाया जा सका था। उस समय न तो मैसूर राजमहल की चकाचौंध देखी जा सकी और न ही लोगों का उत्साह कहीं दिखाई दिया। इसे दोबारा शुरू करने के लिए वर्ष 1971 में कर्नाटक सरकार ने एक कमेटी गठित की और सिफारिशों के आधार पर दशहरा को राज्य उत्सव के रूप में दोबारा मनाया जाने लगा।